


उज्जैन — जहां समय भी शिव के चरणों में थमता है, और जहां हर अमावस्या कोई साधारण रात्रि नहीं होती, बल्कि कालजयी महाकाल की शक्ति का जागरण बन जाती है। आषाढ़ कृष्ण पक्ष अमावस्या की ब्रह्मवेला में, जब पूरे विश्व में अंधकार छा जाता है, उस क्षण उज्जैन में प्रकाश फूटता है — भस्म आरती की दिव्यता से।
भस्म आरती महाकालेश्वर मंदिर की वह प्राचीन और विलक्षण परंपरा है, जो केवल पूजा नहीं, बल्कि जीवन और मृत्यु के मध्य की रेखा को शिवत्व से भर देने वाला अनुभव है। इस आरती में महाकाल को चिता की भस्म से सजाया जाता है — यह वही भस्म है जो देह की माया को भस्म कर देती है, और आत्मा को शुद्ध शिवभाव में प्रतिष्ठित करती है।
इस विशेष अमावस्या पर हजारों श्रद्धालु देश के कोने-कोने से उज्जैन पहुंचे। जब रात के अंधकार में मंदिर के भीतर दीप जले, शंखनाद हुआ, नगाड़े गूंजे और महाकाल की भव्य प्रतिमा पर भस्म का तिलक हुआ — वह क्षण जैसे संपूर्ण कालचक्र को रोक देने वाला था। हर दृष्टि स्थिर, हर सांस रुकी हुई, और हर हृदय से एक ही स्वर निकला — “जय महाकाल!”
यह भस्म आरती एक आध्यात्मिक यात्रा है, जिसमें हर श्रद्धालु मृत्यु के भय को पीछे छोड़कर शिव के शरणागत भाव में प्रवेश करता है। अमावस्या की रात तंत्रशास्त्र में अत्यंत प्रभावशाली मानी जाती है — और जब यह रात्रि महाकालेश्वर के गर्भगृह में भस्म की सुगंध और मंत्रों की ध्वनि से भर जाती है, तो यह केवल एक धार्मिक घटना नहीं रह जाती, यह बन जाती है एक तांत्रिक ऊर्जाओं का जागरण।
शिव, जो स्वयं समय से परे हैं — ‘महाकाल’ — उनके प्रति यह आरती केवल शरीर से नहीं, आत्मा से की जाती है। यह आरती हमें यह स्मरण कराती है कि शरीर नश्वर है, पर आत्मा, शिव की तरह, अजर और अमर है। अमावस्या की यह भक्ति यात्रा केवल दर्शन नहीं, आत्मदर्शन बन जाती है।
उज्जैन की पवित्र धरती, जो बारह ज्योतिर्लिंगों में सबसे विशेष महाकालेश्वर का वासस्थान है, हर अमावस्या पर एक जीवंत शिवलोक में बदल जाती है। भस्म आरती इसकी आत्मा है — जो भक्तों को केवल देखना नहीं, बल्कि स्वयं को खो देना सिखाती है। इस आरती का हर क्षण मृत्यु से मुक्ति की ओर ले जाता है।
इस आषाढ़ अमावस्या पर जिन भक्तों ने यह अलौकिक दर्शन किया, वे यह अनुभव लेकर लौटे कि शिव केवल पूज्य नहीं, स्वीकार्य तत्त्व हैं — जो हर सांस में, हर मृत्यु में, और हर मोक्ष में विद्यमान है।